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     आजादी के सात दशक बाद भी स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों, फांसी के फंदों को चूमने वाले क्रांन्तिकारियों, विदेशी हुकूमत की यातनाओं को सहने वाले त्यागी एवं बलिदानियों को उचित सम्मान नहीं मिला। उनके त्याग एवं बलिदान को भुलाने का प्रयास किया गया। जो नेता जेलों में बैठकर किताबें लिखते रहे वे महान हो गए। यह सब अहिंसा के अतिरेक के कारण हुआ। आपातकाल के इतिहास को भुलाने हेतु तत्कालीन शासकों ने शासकीय दस्तावेजों को नष्ट किया। शाह कमीशन की रिपोर्ट, अदालती कार्यवाहियां, जुल्म-सितम की कहानियां, पुलिस की बर्बरता के प्रमाण, तत्समय के आदेश, इन सभी को नष्ट कर लोकतंत्र के कलंकित इतिहास को छुपाने का प्रयास किया।

    आज भी आपातकाल के पीड़ित मीसाबंदी एवं दिवंगत मीसाबंदियों के परिवार आपातकाल की घटनाओं के प्रत्यक्ष एवं जीवंत प्रमाण है। यदि इन्हें इतिहास में स्थान नहीं मिला तो कुछ वर्षों बाद इनकी कहानियां भी इतिहास के अँधेरे में गुम हो जावेगी। ऐसे भुक्तभोगियों एवं प्रत्यक्ष दर्शियों की गाथाओं को जनमानस तक पंहुचाने तथा भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल का काला अध्याय जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए उपलब्ध कराने हेतु यह अल्प प्रयास है।