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लोकतंत्र सेनानी


Name :
SANTOSH SHARMA

नाम :
श्री श्री संतोष शर्मा

पिता
श्री शंकरलाल शर्मा

लिंग :
पुरूष

राज्य :
Madhya Pradesh

जिला :
Bhopal

जन्म
23-09-1961

आवेदन दिनांक :
01-09-2016

ई मेल पता:
santoshsharmapa@gmail.com

मोबाइल :
9425029827

आवेदक का नाम :
स्वयं

लोकतंत्र सेनानी से रिश्ता:
स्वयं

डाक का पता:
217/2 सी,साकेत नगर, भोपाल,म.प्र.

निरुद्ध जेल का नाम
भोपाल सेंट्रल जेल

जेल अवधि
23 जनवरी से मार्च 1976 तक

वर्तमान ज़िम्मेदारी
निजी सहायक (आवास कार्यालय), माननीय मुख्यमंत्री, मध्यप्रदेश , राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष- लो.से.संघ ० प्रांतीय कोषाध्यक्ष, लो.से.संघ, म.प्र.

जीवित या स्वर्गीय
living

सामाजिक दायित्व
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयं सेवक

संस्मरण:
*असली संघर्ष शुरू हुआ जेल से रिहाई के बाद* मेरी उम्र उस समय महज साढ़े चौदह साल की थी। आपातकाल के विरोध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सत्याग्रह आंदोलन शुरू हो चुका था। मैंने भी सत्याग्रह कर जेल जाने का फैसला किया। मेरी कम उम्र को देखते हुए बाहर के लोगों ने तो मुझे समझाया पर मेरे पिता जी और माता जी का पूरा समर्थन मिला। मेरे पिता जी श्री शंकरलाल शर्मा की भोपाल स्थित भेल कंपनी में नौकरी थी और भारतीय मजदूर संघ के पदाधिकारी होने के नाते वे मजदूर आंदोलन में काफी सक्रिय थे। पिताजी की विचारधारा और सक्रियता के कारण ही मुझे आपातकाल के खिलाफ सत्याग्रह कर जेल के कष्टमय जीवन का आलिंगन करने की प्रेरणा मिली। आखिरकार सत्याग्रह की तिथि आ गई। तारीख थी 23 जनवरी 1976। मेरे दो सहपाठी श्री चन्द्रभान यादव तथा श्री रमेश सिंह के साथ श्री सुरेश गुप्ता, श्री शंभु सोनकिया और श्री अशोक गर्ग सत्याग्रह के लिए मेरे घर पहुँच गए । मेरी माता जी ने हम छहों को तिलक लगा कर सत्याग्रह के लिए विदा किया। ऐसा करते वक्त माता जी के चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। माँ का आशीर्वाद लेकर हम बुलंद हौसले के साथ घर से निकले। हमने भोपाल के चौक पर सत्याग्रह करने का निर्णय लिया था। चौक पर पहुंचते ही सबसे पहले हमने मालाएँ खरीद कर एक-दूसरे को पहनाई और बुलंद आवाज में आपातकाल विरोधी नारे लगाते हुए प्रदर्शन करने लगे। नारों की आवाज सुन चौक पर लोगों की भीड़ लग गई। लोग हम जैसे किशोरवय के छोरों के दुःसाहस को विस्मित नेत्रों से देख रहे थे। चौक पर ड्यूटी पर तैनात पुलिस जब तक हरकत में आती, हम अपने मकसद में कामयाब हो चुके थे। 5/10 मिनट की नारेबाजी के बाद हम तीनों पुलिस की गिरफ्त में थे। थाने ले जाकर पुलिस ने छहों को लॉक-अप में बंद कर दिया। बंद करने से पहले पुलिस ने बड़ी बेदर्दी दिखाई। जनवरी की ठंड में हमारे गरम कपड़े उतरवा दिए। लाॅक-अप के अंदर जब रात में ठंड सितम ढाने लगी तो हमने बचाव का रास्ता निकाला। रात भर दंड-बैठक और सूर्य नमस्कार जैसे व्यायाम करते रहे ताकि शरीर गरम रहे। सुबह आठ बजे दो-तीन पुलिस अधिकारियों ने हम सभी को लाॅक-अप से बाहर निकाल डंडे बरसाने शुरु कर दिए। सभी को कम से कम सौ-सौ डंडे मारे गए। जब मेरी बारी आई तो मेरे दुबले-पतले शरीर को देख शायद पुलिस अधिकारी को दया आ गई। फिर भी पुलिस वाले ने "बड़ा क्रांतिकारी बनता है" कहते हुए 10 - 15 डंडे रसीद कर ही दिए। डंडे खाने के बावजूद हमारा हौसला नही टूटा, बल्कि आगे और भी शारीरिक यातना झेलने के लिए हमने खुद को मजबूत बना लिया था। पर ऐसी नौबत नही आई। शाम चार बजे मजिस्ट्रेट के सामने हमारी पेशी हुई। पुलिस ने हम सभी के खिलाफ धारा - 151 और डी.आई.आर. का केस बनाकर भोपाल सेंट्रल जेल भेज दिया। मेरी नाबालिग उम्र को देखते हुए 1 मार्च 1976 को न्यायालय ने जमानत मंजूर करते हुए रिहाई का आदेश दिया। मेरा असली संघर्ष जेल से रिहा होने के बाद शुरू हुआ। मैं नवीं कक्षा का छात्र था। आपातकाल का विरोध कर जेल जाने के कारण स्कूल ने मेरा नाम काट निष्कासित कर दिया था। अन्य स्कूलों ने भी मेरे कारनामे के कारण नामांकन देने से मना कर दिया। पढ़ाई जारी रखने की कठिन समस्या पैदा हो गई। मेरे माता-पिता ने धैर्य नही खोया और प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में कला संकाय से परीक्षा देने के लिए उत्प्रेरित किया। किसी भी स्कूल में रेगुलर एडमिशन नहीं मिलने के कारण विज्ञान और गणित में शिक्षा ग्रहण की मेरी लालसा अधूरी रह गई। पर मुझे इसका कोई मलाल नहीं। मैंने घर पर पढ़ाई करने के अलावा जेल में बंद बंधुओं के परिवार वालों की सेवा और सहायता करना अपना लक्ष्य बना लिया था। इस काम में मेरे पिता जी अग्रणी थे। पिता जी अपनी विचारधारा के लोगों से धन संग्रह कर बंदियों के परिजनो तक आर्थिक सहायता भेजते थे। संघ के एक निष्ठावान स्वयंसेवक श्री छोंकर जी की आटा चक्की थी। वहां सेआटा एकत्रित कर बंदियों के परिवार तक पंहुचाया जाता था। मैं इस काम में पूरे उत्साह से लगा रहता था। जेल में बंद बीमार बंदियों को इलाज के लिए भोपाल के हमीदिया अस्पताल लाया जाता था। बीमार बंदियों की सेवा-सुश्रुषा में मुझे बहुत संतुष्टि मिलती थी। अभी म.प्र. पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष श्री तपन भौमिक जब जेल में डबल टाॅयफायड से पीड़ित होकर हमीदिया अस्पताल में भर्ती किए गए तो एक माह तक मैं उनकी देखभाल करता रहा। एक अन्य बंदी हशमतुल्ला वारसी खून की उल्टी से पीड़ित थे। अस्पताल में हशमतुल्ला साहब की सेवा में मैंने जी जान लगा दिया था पर वे नहीं बचे। मुझे आज तक इसकी तकलीफ है। अभी एक और संघर्ष बाकी था। 1987 में मेरा चयन शासकीय सेवा में हुआ। चरित्र सत्यापन में पुलिस ने आपातकाल में मेरी जेल यात्रा को आधार बनाकर " शासकीय सेवा के योग्य नही" टिप्पणी अंकित कर दी। पुलिस रिपोर्ट के कारण मेरी नियुक्ति अधर में फंस गई। मैंने जबलपुर उच्च न्यायालय में शासन के फैसले को चुनौती दी। इसी बीच मेरे क्षेत्रीय विधायक श्री बाबूलाल गौर ने 15 अगस्त 1988 को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अर्जून सिंह से मिल मेरा आवेदन देते हुए न्याय करने की मांग की। मुख्यम॔त्री ने सहृदयता का परिचय देते हुए प्रतिकूल टिप्पणी को निरस्त कर शासकीय सेवा में आने का रास्ता साफ किया। मेरी नियुक्ति तो हो गई परंतु इस में हुई 14 माह के बिलंब के कारण मैं अपने 650 सहयोगियों में सबसे कनिष्ठ हो गया।

स्मृतियाँ:

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